Friday, November 1, 2013

श्लोक १९८

||श्रीराम समर्थ ||


नभे व्यापिले सर्व सृष्टीस आहे।
रघूनायका ऊपमा ते साहे॥
दुजेवीण जो तोचि तो हा स्वभावे।
तया व्यापकू व्यर्थ कैसे म्हणावे॥१९८॥

जय जय रघुवीर समर्थ !

2 comments:

Tanmay said...

श्लोक १९८......
नभे व्यापिले सर्व स्रुष्टिस आहे |
रघुनायका ऊपमा ते न साहे ||
दुजेवीण जो तोचि तो हा स्वभावे |
तया व्यापकू व्यर्थ कैसे म्हणावे ||१९८||
हिन्दी में ......
आकाश में जो सर्व स्रुष्टि में होता |
रघुनायक को ऊपमा ना सहता ||||
दुजे बिन जो वह है ये स्वभवि ||
उसे व्यापक व्यर्थ कैसे कहे हम ||१९८||
अर्थ....श्री समर्थ रामदास स्वामी जी कहते है कि हे मानव मन! आकाश मे व्याप्त सब कुछ दिखाई देता है परन्तु श्रीराम का प्रत्यक्ष में द्रुष्टान्त होना सहनशक्ति से परे है || अत: उनकी तुलना करना किसी अन्य से संम्भव ही नही है | स्वभावत: परमात्मा की हमनें अद्वैत रुप में कल्पना की है अत: उसकी हम व्यापक रुप में ही कल्पना करते है तो उसे व्यर्थ कैसे कह सकते है | वह तो सर्व व्याप्त है | अत: हमे सतत उसका स्मरण करना चाहिये |


suvarna lele said...

या दृश्य सृष्टीला आकाशाने व्यापले आहे .परंतू आकाशाची उपमा रघुनायकाला पुरेशी नाही . रघूनायक म्हणजेच राघव ,म्हणजे परब्रह्म तेच सर्वत्र भरून आहे .त्याच्या शिवाय दुसरे कोणीच नाही . जेथे व्यापायला दुसरे कांहीच नाही ,त्याला व्यापक हा शब्द सुध्दा पुरेसा नाही