Friday, December 23, 2011

श्लोक १०४

II श्रीराम समर्थ II 

क्रियेवीण नानापरी बोलिजेंते।
परी चित्त दुश्चीत तें लाजवीतें॥
मना कल्पना धीट सैराट धांवे।
तया मानवा देव कैसेनि पावे॥१०४॥
 


जय जय रघुवीर समर्थ !

1 comment:

lochan kate said...

श्लोक १०४ ...
क्रिये विण नाना परी बोलिजेते |
परी चित्त दुश्चित ते लाजविते ||
मना कल्पना धीट सैराट धांवे |
तया मानवा देव कैसेनि पावे ||१०४ ||
हिन्दी में ...
क्रिया बिन जो कुछ बोले है नाना |
परंतु चित्त दुश्चित्त है लाज बाना ||
मन: कल्पना धैर्य सर्रास दौडे|
उस मानव को भगवान कैसे है छोडे ||१०४||
अर्थ ....
श्री रामदासजी कहते है कि हे मानव मन ! इस संसार में कितने ही लोग ऐसे है जो कार्य किये बिना ही विभिन्न प्रकार की बातें करते है , परन्तु उनका मन उन्हे अन्दर से कचोटता रहता है |अत: जिसके मन की कल्पनायें या विचार धैर्य पूर्वक नही दौडते है , उसको परमेश्वर की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? इसलिये रामनाम की दौड धैर्य पूर्वक लगाना आवश्यक है अर्थात् नामस्मरण सतत् करते रहना चाहिये | जिससे परमेश्वर की प्राप्ति सहज रुप से हो सकती है |