Friday, December 30, 2011

श्लोक १०५

II श्रीराम समर्थ II 




विवेके क्रिया आपुली पालटावी।
अती आदरे शुद्ध क्रीया धरावी॥
जनीं बोलण्यासारिखे चाल बापा।
मना कल्पना सोडिं संसारतापा॥१०५॥
 


जय जय रघुवीर समर्थ !

1 comment:

lochan kate said...

विवेके क्रिया आपुली पालटावी |
अती आदरे शुध्द क्रिया धरावी ||
जनी बोलण्या सारिखे चाल बापा |
मना कल्पना सोडि संसार तापा ||१०५ ||
हिन्दी में .....
विवेक से क्रिया अपनी कुछ बदलो |
अति आदर से शुध्द क्रिया कर लो ||
जनी बोले ऐसा वर्तन तु रख रे |
मन: कल्पना छोड संसार देख रे ||१०५||
अर्थ .... श्री समर्थ रामदास जी कहते है कि हे मनुष्य ! विवेक पूर्वक अपनें क्रिया कलापों में बदलाव लाना चाहिये तथा अत्यंत आदर पूर्वक शुध्द मन से कार्य करना चाहिये तथा जो कल्पनायें या विचार संसार में लोगों को कष्ट देनें वाली हो उन्हे त्यागना चाहिये | अर्थात् जनों में अपनी प्रशंसा हो ऐसा वर्तन होना चाहिये | अपने किसी भी व्यवहार से दूसरों को कष्ट नही होना चाहिये |