Saturday, October 6, 2012

श्लोक १४२

II श्रीराम समर्थ II

kLonaa kLonaa kLonaa Zlonaa ¦
ZLo naaZLo saMXayaaohI Zlonaa ¦
gaLonaa gaLonaa AhMta gaLonaa ¦
baLo AakLonaa imaLonaa imaLonaa ¦¦१४२¦¦

डॉक्टर सुषमाताई वाटवे यांचे या श्लोकावरिल श्राव्य निरूपण


जय जय रघुवीर समर्थ !

2 comments:

suvarna lele said...

या श्लोकाचे वैशिष्ट्य असे की यात एकच क्रियापद ३ /३ वेळा वापरले आहे .ज्याप्रमाणे गाठ घट्ट बसावी म्हणून आपण एकावर एक अशा दोन दोन गाठी मारतो ,तसे समर्थ विचार घट्ट पणे पटविण्यासाठी एकच क्रियापद तीन तीन वेळा वापरतात .
माणसाला अनेक गोष्टी ज्या कळायला हव्या त्या स्पष्टपणे कळत नाहीत .त्यामुळे त्याच्या मनातले संशय नाहीसे होत नाहीत .त्याला कारण असते त्याची अहंता ! माणसाजवळ त्याच्या बुध्दिमत्तेचा ,चातुर्याचा ,आकलन शक्तीचा अहंकार असतो .,आपल्या कामाच्या कौशल्यावर जास्त विश्वास असतो .पण तेव्हडे पुरेसे नसते .अहंता सोडून सद्गुरू चरणी अनन्यता पत्करली तर सत्य ,हित यथार्थ पणे समजते .नाहीतर चाचपडत जीवन जगावे लागते .

lochan kate said...

श्लोक १४२ ....
कळेना कळेना कळेना ढळेना |
ढळे ना ढळेना संशयोप ही ढळेना ||
गळेना गळेना अहंता गळेना |
बळे आकळेना मिळेना मिळेना ||१४२||
हिन्दी में....
समझता कभी भी हमको नही है |
संशय के फ़ेरे से निकलना नही है ||
अहंकार के गर्त में डूबे है हम तो |
बलात ही मिले ज्ञान अंत:करण को ||१४२||

अर्थ.....श्री समर्थ राम दास जी कहते है कि हे मनुष्य मन ! कभी भी किसी शक्ति के बारे में ना तो मनुष्य को समझता है और ना ही उसके संशय का कभी अंत होता है | ना ही मनुष्य के अहंकार का कोई अंत होता है | उसकी स्वयं की जिद के कारण वश वस्तु तथा स्थिती का ज्ञान नही हो पाता | ईश्वर की शरण में जाने से अहंकार दूर होता है | अत: सदैव श्री गुरु की शरण में रहकर जीवन को सार्थक करने का प्रयास करना चाहिये एवं विवेक से कार्य करना चाहिये जिससे सोच समझकर किया गया कार्य ही अच्छा और व्यवस्थित होता है और अपने जीवन का मार्ग सुगम होता है |