II श्रीराम समर्थ II
श्रुती
न्याय मीमांसके तर्कशास्त्रे।
स्मृती
वेद वेदान्तवाक्ये विचित्रे॥
स्वये
शेष मौनावला स्थीर पाहे।
मना
सर्व जाणीव सांडून राहे॥१५८॥
जय जय रघुवीर समर्थ !
| म्हणे जाणता तो जनी मूर्ख पाहे। |
| अतर्कासि तर्की असा कोण आहे॥ |
| जनीं मीपणे पाहता पाहवेना। |
| तया लक्षितां वेगळे राहवेना॥१५६॥ डॉक्टर सुषमाताई वाटवे यांचे या श्लोकावरिल श्राव्य निरूपण |
| दिसेना जनी तेचि शोधुनि पाहे। |
| बरे पाहता गूज तेथेचि आहे॥ |
| करी घेउ जाता कदा आढळेना। |
| जनी सर्व कोंदाटले ते कळेना॥१५५॥ |