Friday, December 16, 2011

श्लोक १०३

II श्रीराम समर्थ II 

हरीकीर्तनीं प्रीति रामीं धरावी।
देहेबुद्धि नीरूपणीं वीसरावी॥
परद्रव्य आणीक कांता परायी।
यदर्थीं मना सांडि जीवीं करावी॥१०३॥
  

 जय जय रघुवीर समर्थ !

2 comments:

lochan kate said...

श्लोक १०३ ....
हरी किर्तने प्रीति रामी धरावी |
देहेबुध्दि निरुपणी विसरावी ||
परद्रव्य आणीक कांता परावी |
यदर्थी मना सांडी जीवी करावी ||१०३||
हिन्दी में ....
हरि किर्तन करके प्रित राम से लगाओ |
निरुपण से देह बुध्दि को भूल जाओ ||
पर द्रव्य और पर कांता परायी |
सत्यता से तु राम नाम अपना जायी||१०३||
अर्थ..... श्री राम दास स्वामी जी कहते है कि हे मनुष्य ! हरि किर्तन करके श्रीराम के प्रति प्रीती रखना चाहिये अर्थात् अपनी काया का अभिमान नही करना चाहिये | अर्थात् अपना देहभान भूलकर अद्वैत निरुपण [भगवद् भजन ] करते रहना चाहिये | दूसरे का धन एवं द्रव्य दूसरे की पत्नी जो परायी है उसके विषय में मन में विचार भी नही लाने की आवश्यकता है | |

Unknown said...

अर्थ नाही यात